टीम अन्ना ‘‘ इंडिया अगेंस्ट कांग्रेस’’मुहिम पर
हिसार आंदोलन को लेकर टीम अन्ना का बड़बोलापन और झूठ देखने लायक है। हिसार में मरे हुए बाघ की मंूछें उखाड़ने की अपनी वीरता पर गद्गद टीम अन्ना कांग्रेस को धमका रही है कि यदि उसने उसका जनलोकपाल बिल पारित नहीं कराया तो वह देश से कांग्रेस का सफाया कर देगी। लेकिन कांग्रेस के खिलाफ और भाजपा के साथ खड़ी दिख रही टीम अन्ना की कोर कमेटी में दरारें पड़ गई हैं। आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ रहे पीवी राजगोपाल और जल आंदोलन के नेता राजेंद्र सिंह ने टीम अन्ना से नाता तोड़ने का ऐलान ही नहीं किया बल्कि केजरीवाल,प्रशांत भूषण,किरन बेदी और मनीष सिसौदिया की चौकड़ी पर मनमानी करने का आरोप लगाया है।भ्रष्टाचार विरोधी इस आंदोलन में आ रहे बदलावों को ध्यान से देखने वाले राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि टीम अन्ना का ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्सन’’ संगठन अब चुपके से ‘‘इंडिया अगेंस्ट कांगेस’’ में बदला जा रहा है। इसीलिए भाजपा टीम अन्ना की स्वाभाविक मित्र पार्टी के रुप में दिखाई दे रही है। टीम अन्ना कभी-कभार आरएसएस-भाजपा की आलोचना कर गैर राजनीतिक होने का कठिन अभिनय करती नजर आती है।
भजनलाल के गढ़ में लगातार हार रही कांग्रेस से हिसाब चुकाने के लिए हिसार उपचुनाव को अपने शक्ति परीक्षण का मैदान बनाने वाली टीम अन्ना ने मीडिया के साथ मिलकर हिसार को भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई की युद्धभूमि बनाकर शानदार रणनीति को अंजाम दिया। इस रणनीति की खासियत यह थी कि इसकी पूरी नींव झूठ और राजनीतिक बेईमानी पर टिकी थी। देश में मुख्यधारा का मीडिया चूंकि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा लाए जा रहे कंटेट कोड को लेकर कांग्रेस से खार खाए बैठा है इसलिए उसने भी हिसार के उपचुनाव में टीम अन्ना के झूठ और बेईमानी को अपना पूरा समर्थन दे दिया। सच यह है कि हिसार में कांग्रेस एक बार को छोड़कर बार-बार चुनाव हारती रही है। 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अपमानजनक हार हुई थी जबकि तब भजनलाल कांग्रेस में ही थे। उस समय भी कांग्रेस तीसरे स्थान पर रही थी और उसे मात्र 36 प्रतिशत वोट ही मिले थे। इसलिए जिस जीत को टीम अन्ना का प्रभाव माना जा रहा है वह दरअसल इस सीट का राजनीतिक इतिहास और सामान्य चुनावी व्यवहार रहा है। इस उपचुनाव में कांग्रेस के खिलाफ कई फैक्टर काम कर रहे थे। भजनलाल की मौत के बाद पूरे इलाके में सहानुभूति लहर थी। भजनलाल के साथ कांग्रेस के सलूक के चलते लोगों में कांग्रेस के खिलाफ गुस्सा था। महंगाई के चलते वे लोग भी नाराज थे जो आम तौर पर कांग्रेस के वोटर रहते आए हैं। दलित समुदाय जाटों की मनमानी से कांग्रेस के खिलाफ था। टीम अन्ना के प्रचार से बस इतना हुआ कि जो जाट मतदाता कांग्रेस के साथ थे उन्हे जब यह लगा कि टीम अन्ना के प्रचार से कांग्रेस का प्रत्याशी तो जीतना नहीं है इसलिए जाट वोटर पूरी तरह से इनेलो के पक्ष में ध्रुवीकृत हो गया। चुनाव के नतीजों को गौर से देखने पर यह जाहिर भी हो जाता है। जाटों के ध्रुवीकरण और दलितों की नाराजगी के कारण कांग्रेस के 50 हजार वोट कम जरुर हुए पर वे किसी ईमानदार उम्मीदवार के पक्ष में नहीं गए बल्कि इनेलो के साथ हो गए। जिनके उम्मीदवार पर भ्रष्टाचार के आरोप में मामले चल रहे हैं। जनहित कांग्रेस और इनेलो के बीच का फैसला जिस छोटे से अंतर हुआ उससे जाहिर हो गया कि इस सीट पर भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं था। जनहित कांग्रेस ने यदि भाजपा के साथ समझौता न किया होता तो चंद्रमोहन चुनाव हार गए होते। टीम अन्ना दरअसल भीतर से तीन फांकों में बंटी हुई है। इसमें एक कांग्रेस विरोधी गुट है जो भाजपा को लेकर नरम रुख रखने का हामी है तो दूसरा गुट भाजपा विरोधी और कांग्रेस के प्रति नरम रुख अपनाए जाने का पक्षधर है। तीसरा खेमा वामपंथी है जो भाजपा और कांग्रेस से बराबर दूरी बनाए रखने का हामी है। यह नक्सल आंदोलन के प्रति हमदर्दी रखने वाला धड़ा है। किरण बेदी,मनीष सिसौदिया और अरविंद केजरीवाल भाजपा और संघ परिवार के करीब हैं। अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण कट्टर कांग्रेस विरोधी होने के कारण एक जमाने में वामपंथी रहे प्रशांत भूषण भी इन तीनों के साथ जुड़ गए हैं। टीम अन्ना को कांग्रेस विरोध और भाजपा समर्थक लाइन पर ले जाने में केजरीवाल कंपनी का ही हाथ कांग्रेसी नेताओं ने अन्ना हजारे का इस्तेमाल महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना को निपटाने में किया। इस लिहाज से हजारे कांग्रेस के करीबी रहे हैं। महाराष्ट्र के सभी कांग्रेसी मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रुप में दिगिवजय सिंह भी अन्ना हजारे के करीबी रहे हैं। हजारे के साथ इसी अंतरंगता के चलते कांग्रेस को यह उम्मीद रही कि वह अन्ना हजारे को आसानी से मैनेज कर लेगी। उसकी इस अवधारणा को मजबूत करने में महाराष्ट्र के कुछ कांग्रेस नेताओं की भूमिका भी अहम रही। इन्ही नेताओं की सलाह पर बाबा रामदेव का मुकाबला करने के लिए अन्ना हजारे का सहारा लिया गया। लोकपाल बिल पर चर्चा के लिए कांग्रेस ने जिस तरह से मात्र अन्ना टीम को बुलाया उससे अन्ना को न केवल सरकारी वैधता मिली बल्कि मीडिया के प्रचार के सहारे अन्ना हजारे का कद कई गुना बढ गया। यदि केंद्र सरकार ने लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करनेके लिए देश के राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठनों से व्यापक विचार विमर्श की लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरु कर दी होती तो इसमें अरुणा रॉय,जेपी नारायण से लेकर देश भर में आंदोलनों से जुड़े लोग भी भागीदार होते और लोकपाल बिल के पीछे सही मायनों में सिविल सोसाइटी की भागीदारी होती। कांग्रेस ने लोकपाल बिल के विचार विमर्श में गरीबों,पीड़ितों और वंचितों के संगठनों को भागीदार बनाने के बजाय सामाजिक इलीटों के संगठन ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्सन’’ से ही बातचीत की। यह अलोकतांत्रिक और अपने पंसद के संगठन को तरजीह देने का मामला था। लेकिन अन्ना को कांग्रेस का औजार बनाने की रणनीति विफल रही क्योंकि केजरीवाल,किरन बेदी और प्रशांत भूषण की संगत से वह पुराने अन्ना नहीं रहे जिसका इस्तेमाल कांग्रेस ने एनसीपी और शिवसेना के खिलाफ किया।
आंदोलन के दौर में कुछ कांग्रेस की रणनीतिक नासमझी और कुछ कोर कमेटी में मौजूद भाजपा से वैचारिक सहानुभूति रखने वाले लोगों के दबाव से टीम अन्ना का झुकाव धुर कांग्रेस विरोधी और बीजेपी के प्रति नरम होता गया। इसी का नतीजा था कि भाजपा के प्रति सख्त रुख रखने के हिमायती स्वामी अग्निवेश को टीम से बाहर कर दिया गया। हिसार के उपचुनाव में कांग्रेस विरोध का झंडा उठाने का निर्णय भी टीम अन्ना में मौजूद भाजपा के प्रति नरम रुख रखने वाले किरन बेदी,अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसौदिया के साथ लगभग तीन-चार दशक से घोर कांग्रेस विरोधी राजनीति में सक्रिय शांतिभूषण और प्रशांत भूषण ने टीम अन्ना को पूरी तरह से कांग्रेस विरोधी गुट में बदल दिया। प्रशांत भूषण सीडी कांड, केजरीवाल से सरकारी पैसे की वसूली,आयकर जांच और एनजीओ को मिलने वाली विदेशी मदद का राजनीतिक इस्तेमाल पर रोक लगाने के केंद्र के निर्णय समेत कुछ फैसलों से कांग्रेस के खिलाफ इस गुट गुस्सा आसमान पर है। अब इसकी रणनीति यह है कि सीधे भाजपा के पक्ष में खड़े होने के बजाय कांग्रेस विरोध के जरिये भाजपा को लाभ पहुंचाया जाय। अन्ना हजारे द्वारा बिहार में नीतिश कुमार और गुजरात में नरेंद्र मोदी की तारीफ करना इसी रणनीति का हिस्सा था। इसके जरिये टीम अन्ना यह साबित कर रही थी कि भ्रष्टाचार मुक्त सरकार देने में एनडीए गठबंधन के ये दो नेता ही सक्षम हैं। टीम अन्ना का यह प्रचार सन ्2014 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर दिया गया एक सुचिंतित बयान था। यह रणनीति आरएसएस के गुप्त एजेंडे जैसी ही है। आरएसएस भी भाजपा को घोषित रुप से लाभ नहीं पहुंचाता बल्कि वह हिंदू ीाावनाओं को भड़का कर उन्हे भाजपा के पक्ष में मोड़ने का काम करता है। इसी तरह अन्ना हजारे का ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्सन’’ भी अब ‘‘इंडिया अगेंस्ट कांग्रेस’’ के रास्ते पर चल पड़ा है। यही कारण है कि टीम अन्ना से उन ताकतों ने किनारा करना शुरु कर दिया है जो संघ परिवार व भाजपा को सांप्रदायिक और सवर्ण जातिवादी ढ़ॉंचे की प्रवक्ता राजनीतिक ताकत मानते रहे हैं। टीम अन्ना से किनारा करने वाले लोगों में कांग्रेस से नजदीकी रखने वाले लोग भी हैं और वामपंथी राजनीति से जुड़े गैर दलीय संगठन भी। पीवी राजगोपाल, राजेंद्र सिंह का टीम अन्ना नाता तोड़ने की घटना को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसे टीम अन्ना के भीतर एक अलोकतांत्रिक और असहिष्णु गुट के काबिज होने का प्रमाण भी माना जा सकता है। पीवी राजगोपाल और राजेंद्र सिंह के टीम अन्ना छोड़ने पर किरण बेदी की टिप्पणी का अहंकार भी यही बयान करता है। बेदी ने कहा था कि लोग आते जाते रहते हैं। लगभग ऐसा ही अरविंद केजरीवाल ने भी कहा।यानी उनकी नजर में राजेंद्र सिंह या राजगोपाल की कोई अहमियत नहीं है और वे उन्हे फैसले लेने की प्रक्रिया में भागीदार बनाने लायक नहीं मानते। इसे यूं भी देखा जा सकता है कि टीम अन्ना पर अब जिस चौगुटा का कब्जा है हर फैसला लेना वही करेगा। इस टीम में वही रहेंगे जो इस चौगुटे की हां में हां करेंगे। यानी टीम अन्ना इमरजेंसी की इंदिरा गांधी की कैबिनेट का अन्ना संस्करण होगा।
इसे कांग्रेस की कामयाबी भी कहा जा सकता है कि उसने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कांग्रेस विरोध के उस मुकाम पर खड़ा कर दिया है जहां वह भाजपा, संघ परिवार और अन्ना हजारे का एक संयुक्त उपक्रम नजर आ रहा है। जाहिर है कि टीम अन्ना के वृहत संघ परिवार का एक हिस्सा लगने से कांग्रेस को कोई समस्या नहीं है।कांग्रेस को समस्या तब होती जब वह देश की वाम और लोकतांत्रिक ताकतों का भ्रष्टाचार विरोधी ऐसा प्रगतिशील राजनीतिक मोर्चा बनने की दिशा में आगे बढ़ता जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कारपोरेट और उदारीकरण के खिलाफ बदलाव के हथियार बना देता। कांग्रेस ही नहीं देश के कारपोरेट राहत की सांस ले सकते है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन बुनियादी बदलाव के आंदोलन की दिशा में जाने के बजाय लोकपाल तक सीमित नरम दक्षिणपंथी आंदोलन बनकर रह गया है।
हिसार आंदोलन को लेकर टीम अन्ना का बड़बोलापन और झूठ देखने लायक है। हिसार में मरे हुए बाघ की मंूछें उखाड़ने की अपनी वीरता पर गद्गद टीम अन्ना कांग्रेस को धमका रही है कि यदि उसने उसका जनलोकपाल बिल पारित नहीं कराया तो वह देश से कांग्रेस का सफाया कर देगी। लेकिन कांग्रेस के खिलाफ और भाजपा के साथ खड़ी दिख रही टीम अन्ना की कोर कमेटी में दरारें पड़ गई हैं। आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ रहे पीवी राजगोपाल और जल आंदोलन के नेता राजेंद्र सिंह ने टीम अन्ना से नाता तोड़ने का ऐलान ही नहीं किया बल्कि केजरीवाल,प्रशांत भूषण,किरन बेदी और मनीष सिसौदिया की चौकड़ी पर मनमानी करने का आरोप लगाया है।भ्रष्टाचार विरोधी इस आंदोलन में आ रहे बदलावों को ध्यान से देखने वाले राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि टीम अन्ना का ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्सन’’ संगठन अब चुपके से ‘‘इंडिया अगेंस्ट कांगेस’’ में बदला जा रहा है। इसीलिए भाजपा टीम अन्ना की स्वाभाविक मित्र पार्टी के रुप में दिखाई दे रही है। टीम अन्ना कभी-कभार आरएसएस-भाजपा की आलोचना कर गैर राजनीतिक होने का कठिन अभिनय करती नजर आती है।
भजनलाल के गढ़ में लगातार हार रही कांग्रेस से हिसाब चुकाने के लिए हिसार उपचुनाव को अपने शक्ति परीक्षण का मैदान बनाने वाली टीम अन्ना ने मीडिया के साथ मिलकर हिसार को भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई की युद्धभूमि बनाकर शानदार रणनीति को अंजाम दिया। इस रणनीति की खासियत यह थी कि इसकी पूरी नींव झूठ और राजनीतिक बेईमानी पर टिकी थी। देश में मुख्यधारा का मीडिया चूंकि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा लाए जा रहे कंटेट कोड को लेकर कांग्रेस से खार खाए बैठा है इसलिए उसने भी हिसार के उपचुनाव में टीम अन्ना के झूठ और बेईमानी को अपना पूरा समर्थन दे दिया। सच यह है कि हिसार में कांग्रेस एक बार को छोड़कर बार-बार चुनाव हारती रही है। 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अपमानजनक हार हुई थी जबकि तब भजनलाल कांग्रेस में ही थे। उस समय भी कांग्रेस तीसरे स्थान पर रही थी और उसे मात्र 36 प्रतिशत वोट ही मिले थे। इसलिए जिस जीत को टीम अन्ना का प्रभाव माना जा रहा है वह दरअसल इस सीट का राजनीतिक इतिहास और सामान्य चुनावी व्यवहार रहा है। इस उपचुनाव में कांग्रेस के खिलाफ कई फैक्टर काम कर रहे थे। भजनलाल की मौत के बाद पूरे इलाके में सहानुभूति लहर थी। भजनलाल के साथ कांग्रेस के सलूक के चलते लोगों में कांग्रेस के खिलाफ गुस्सा था। महंगाई के चलते वे लोग भी नाराज थे जो आम तौर पर कांग्रेस के वोटर रहते आए हैं। दलित समुदाय जाटों की मनमानी से कांग्रेस के खिलाफ था। टीम अन्ना के प्रचार से बस इतना हुआ कि जो जाट मतदाता कांग्रेस के साथ थे उन्हे जब यह लगा कि टीम अन्ना के प्रचार से कांग्रेस का प्रत्याशी तो जीतना नहीं है इसलिए जाट वोटर पूरी तरह से इनेलो के पक्ष में ध्रुवीकृत हो गया। चुनाव के नतीजों को गौर से देखने पर यह जाहिर भी हो जाता है। जाटों के ध्रुवीकरण और दलितों की नाराजगी के कारण कांग्रेस के 50 हजार वोट कम जरुर हुए पर वे किसी ईमानदार उम्मीदवार के पक्ष में नहीं गए बल्कि इनेलो के साथ हो गए। जिनके उम्मीदवार पर भ्रष्टाचार के आरोप में मामले चल रहे हैं। जनहित कांग्रेस और इनेलो के बीच का फैसला जिस छोटे से अंतर हुआ उससे जाहिर हो गया कि इस सीट पर भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं था। जनहित कांग्रेस ने यदि भाजपा के साथ समझौता न किया होता तो चंद्रमोहन चुनाव हार गए होते। टीम अन्ना दरअसल भीतर से तीन फांकों में बंटी हुई है। इसमें एक कांग्रेस विरोधी गुट है जो भाजपा को लेकर नरम रुख रखने का हामी है तो दूसरा गुट भाजपा विरोधी और कांग्रेस के प्रति नरम रुख अपनाए जाने का पक्षधर है। तीसरा खेमा वामपंथी है जो भाजपा और कांग्रेस से बराबर दूरी बनाए रखने का हामी है। यह नक्सल आंदोलन के प्रति हमदर्दी रखने वाला धड़ा है। किरण बेदी,मनीष सिसौदिया और अरविंद केजरीवाल भाजपा और संघ परिवार के करीब हैं। अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण कट्टर कांग्रेस विरोधी होने के कारण एक जमाने में वामपंथी रहे प्रशांत भूषण भी इन तीनों के साथ जुड़ गए हैं। टीम अन्ना को कांग्रेस विरोध और भाजपा समर्थक लाइन पर ले जाने में केजरीवाल कंपनी का ही हाथ कांग्रेसी नेताओं ने अन्ना हजारे का इस्तेमाल महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना को निपटाने में किया। इस लिहाज से हजारे कांग्रेस के करीबी रहे हैं। महाराष्ट्र के सभी कांग्रेसी मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रुप में दिगिवजय सिंह भी अन्ना हजारे के करीबी रहे हैं। हजारे के साथ इसी अंतरंगता के चलते कांग्रेस को यह उम्मीद रही कि वह अन्ना हजारे को आसानी से मैनेज कर लेगी। उसकी इस अवधारणा को मजबूत करने में महाराष्ट्र के कुछ कांग्रेस नेताओं की भूमिका भी अहम रही। इन्ही नेताओं की सलाह पर बाबा रामदेव का मुकाबला करने के लिए अन्ना हजारे का सहारा लिया गया। लोकपाल बिल पर चर्चा के लिए कांग्रेस ने जिस तरह से मात्र अन्ना टीम को बुलाया उससे अन्ना को न केवल सरकारी वैधता मिली बल्कि मीडिया के प्रचार के सहारे अन्ना हजारे का कद कई गुना बढ गया। यदि केंद्र सरकार ने लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करनेके लिए देश के राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठनों से व्यापक विचार विमर्श की लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरु कर दी होती तो इसमें अरुणा रॉय,जेपी नारायण से लेकर देश भर में आंदोलनों से जुड़े लोग भी भागीदार होते और लोकपाल बिल के पीछे सही मायनों में सिविल सोसाइटी की भागीदारी होती। कांग्रेस ने लोकपाल बिल के विचार विमर्श में गरीबों,पीड़ितों और वंचितों के संगठनों को भागीदार बनाने के बजाय सामाजिक इलीटों के संगठन ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्सन’’ से ही बातचीत की। यह अलोकतांत्रिक और अपने पंसद के संगठन को तरजीह देने का मामला था। लेकिन अन्ना को कांग्रेस का औजार बनाने की रणनीति विफल रही क्योंकि केजरीवाल,किरन बेदी और प्रशांत भूषण की संगत से वह पुराने अन्ना नहीं रहे जिसका इस्तेमाल कांग्रेस ने एनसीपी और शिवसेना के खिलाफ किया।
आंदोलन के दौर में कुछ कांग्रेस की रणनीतिक नासमझी और कुछ कोर कमेटी में मौजूद भाजपा से वैचारिक सहानुभूति रखने वाले लोगों के दबाव से टीम अन्ना का झुकाव धुर कांग्रेस विरोधी और बीजेपी के प्रति नरम होता गया। इसी का नतीजा था कि भाजपा के प्रति सख्त रुख रखने के हिमायती स्वामी अग्निवेश को टीम से बाहर कर दिया गया। हिसार के उपचुनाव में कांग्रेस विरोध का झंडा उठाने का निर्णय भी टीम अन्ना में मौजूद भाजपा के प्रति नरम रुख रखने वाले किरन बेदी,अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसौदिया के साथ लगभग तीन-चार दशक से घोर कांग्रेस विरोधी राजनीति में सक्रिय शांतिभूषण और प्रशांत भूषण ने टीम अन्ना को पूरी तरह से कांग्रेस विरोधी गुट में बदल दिया। प्रशांत भूषण सीडी कांड, केजरीवाल से सरकारी पैसे की वसूली,आयकर जांच और एनजीओ को मिलने वाली विदेशी मदद का राजनीतिक इस्तेमाल पर रोक लगाने के केंद्र के निर्णय समेत कुछ फैसलों से कांग्रेस के खिलाफ इस गुट गुस्सा आसमान पर है। अब इसकी रणनीति यह है कि सीधे भाजपा के पक्ष में खड़े होने के बजाय कांग्रेस विरोध के जरिये भाजपा को लाभ पहुंचाया जाय। अन्ना हजारे द्वारा बिहार में नीतिश कुमार और गुजरात में नरेंद्र मोदी की तारीफ करना इसी रणनीति का हिस्सा था। इसके जरिये टीम अन्ना यह साबित कर रही थी कि भ्रष्टाचार मुक्त सरकार देने में एनडीए गठबंधन के ये दो नेता ही सक्षम हैं। टीम अन्ना का यह प्रचार सन ्2014 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर दिया गया एक सुचिंतित बयान था। यह रणनीति आरएसएस के गुप्त एजेंडे जैसी ही है। आरएसएस भी भाजपा को घोषित रुप से लाभ नहीं पहुंचाता बल्कि वह हिंदू ीाावनाओं को भड़का कर उन्हे भाजपा के पक्ष में मोड़ने का काम करता है। इसी तरह अन्ना हजारे का ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्सन’’ भी अब ‘‘इंडिया अगेंस्ट कांग्रेस’’ के रास्ते पर चल पड़ा है। यही कारण है कि टीम अन्ना से उन ताकतों ने किनारा करना शुरु कर दिया है जो संघ परिवार व भाजपा को सांप्रदायिक और सवर्ण जातिवादी ढ़ॉंचे की प्रवक्ता राजनीतिक ताकत मानते रहे हैं। टीम अन्ना से किनारा करने वाले लोगों में कांग्रेस से नजदीकी रखने वाले लोग भी हैं और वामपंथी राजनीति से जुड़े गैर दलीय संगठन भी। पीवी राजगोपाल, राजेंद्र सिंह का टीम अन्ना नाता तोड़ने की घटना को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसे टीम अन्ना के भीतर एक अलोकतांत्रिक और असहिष्णु गुट के काबिज होने का प्रमाण भी माना जा सकता है। पीवी राजगोपाल और राजेंद्र सिंह के टीम अन्ना छोड़ने पर किरण बेदी की टिप्पणी का अहंकार भी यही बयान करता है। बेदी ने कहा था कि लोग आते जाते रहते हैं। लगभग ऐसा ही अरविंद केजरीवाल ने भी कहा।यानी उनकी नजर में राजेंद्र सिंह या राजगोपाल की कोई अहमियत नहीं है और वे उन्हे फैसले लेने की प्रक्रिया में भागीदार बनाने लायक नहीं मानते। इसे यूं भी देखा जा सकता है कि टीम अन्ना पर अब जिस चौगुटा का कब्जा है हर फैसला लेना वही करेगा। इस टीम में वही रहेंगे जो इस चौगुटे की हां में हां करेंगे। यानी टीम अन्ना इमरजेंसी की इंदिरा गांधी की कैबिनेट का अन्ना संस्करण होगा।
इसे कांग्रेस की कामयाबी भी कहा जा सकता है कि उसने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कांग्रेस विरोध के उस मुकाम पर खड़ा कर दिया है जहां वह भाजपा, संघ परिवार और अन्ना हजारे का एक संयुक्त उपक्रम नजर आ रहा है। जाहिर है कि टीम अन्ना के वृहत संघ परिवार का एक हिस्सा लगने से कांग्रेस को कोई समस्या नहीं है।कांग्रेस को समस्या तब होती जब वह देश की वाम और लोकतांत्रिक ताकतों का भ्रष्टाचार विरोधी ऐसा प्रगतिशील राजनीतिक मोर्चा बनने की दिशा में आगे बढ़ता जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कारपोरेट और उदारीकरण के खिलाफ बदलाव के हथियार बना देता। कांग्रेस ही नहीं देश के कारपोरेट राहत की सांस ले सकते है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन बुनियादी बदलाव के आंदोलन की दिशा में जाने के बजाय लोकपाल तक सीमित नरम दक्षिणपंथी आंदोलन बनकर रह गया है।